नक्सल प्रभावित ज़िलों में सीआपीएफ कैंप के विरोध में प्रदर्शन कर रहे ग्रामीण कैंप हटाए जाने की मांग को लेकर डटे हुए हैं, तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ सरकार ने यह इशारा दिया है कि वो कैंप हटाने के मूड में नहीं है. एक प्रेस रिलीज़ में सरकार ने कहा कि आदिवासी इलाकों से माओवादियों को खदेड़ने और लोकतंत्र बहाल करने के लिए एक सोची समझी रणनीति के तहत ये कैंप लग रहे हैं, जो बेहद ज़रूरी हैं. वहीं, सरकार के इस रुख के बावजूद प्रदर्शनकारी ग्रामीणों की संख्या बढ़ती जा रही है और 40 गांवों के लोग प्रदर्शन में शामिल हो चुके हैं.
माओवाद प्रभावित बीजापुर और सुकमा ज़िलों के कलेक्टरों के
साथ बैठक के बावजूद ग्रामीण सड़कों पर डटे हुए हैं. बीबीसी की रिपोर्ट कहती है कि सिलगेर गांव में विरोध प्रदर्शन में 40 गांवों के लोग कह रहे हैं कि उन्हें स्वास्थ्य केंद्रों, स्कूलों, आंगनबाड़ियों की ज़रूरत है, फोर्स या पुलिस कैंपों की नहीं. पहले ये जानिए कि 12 दिनों से आदिवासी विरोध क्यों कर रहे हैं और फिर जानिए कि दोनों पक्षों की दलीलें क्या हैं.
आखिर ये पूरा मुद्दा क्या है?
छत्तीसगढ़ में पुलिस कैंपों की भरमार रही है इसलिए नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में कैंपों को लेकर इतना बड़ा विरोध आखिर क्यों हो रहा है? खबरों की मानें तो सुकमा और बीजापुर में सीआरपीएफ की 153वीं बटालियन के कैपं की भनक इस महीने के शुरू में गांवों में पड़ी तो लोग विरोध के लिए पहुंचे. तब ग्रामीणों से कोई कैंप न लगने की बात कही गई लेकिन 12 मई तक कैंप बन गया.
इस कैंप के विरोध में आदिवासियों ने 13 और 14 मई से विरोध शुरू किया. 17 मई को विरोध के दौरान जब प्रदर्शनकारियों व सुरक्षा जवानों के बीच तनाव बढ़ा तो पहले लाठी चार्ज हुआ और फिर फायरिंग, जिसमें तीन प्रदर्शनकारियों की मौत हुई. करीब दो दर्जन लोग घायल हुए और आधा दर्जन से ज़्यादा गिरफ्तार किए गए. अब एकदम उल्टी थ्योरीज़ के चलते ग्रामीण और सुरक्षा बल भिड़े हुए हैंं.
क्या है पुलिस और बल की थ्योरी?
1. पहले प्रदर्शनकारियों की तरफ से गोली चली, जवाब में फायरिंग की गई. 2. गोली माओवादियों पर चलाई गई. 3. मारे गए तीनों माओवादी थे. 4. आईजी पुलिस पी. सुंदरराज के मुताबिक खबरों में कहा गया कि ग्रामीणों को पूछताछ के लिए रखा गया. लेकिन पुलिस के हर तर्क को खारिज करते हुए ग्रामीणों का कहना कुछ और ही है.
क्या हैं विरोध के तर्क और सवाल?
सुरक्षा बलों की कार्रवाई को हिंसक बताने वाले ग्रामीणों के मुताबिक पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाई तो कैसे कहा जाता है कि गोली माओवादियों पर चलाई गई? सिस्टम जब इलाके के लोगों का विकास और सुविधा ही चाहता है, तो गोली चलाई ही क्यों गई? बिलासपुर हाई कोर्ट में एक वकील ने यह आरोप लगाया कि पुलिस ने मृतकों को माओवादी तो कहा लेकिन एक का भी नाम नहीं बता सकी. सामाजिक कार्यकर्ता बेला भाटिया, आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी, अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ और आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं को सिलगेर नहीं जाने दिया गया.
क्या है सूरते हाल और जांच पर रुख?
इस पूरे मामले पर फिलहाल कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने ही चुप्पी साध रखी है. इस बात का भी फिलहाल कोई जवाब नहीं है कि सिलगेर में लगा कैंप रहेगा या नहीं. दूसरी तरफ, आदिवासी सभा के नेता और पूर्व विधायक मनीष कुंजाम ने इस गोलीकांड की न्यायिक जांच की मांग की है. कुंजाम का कहना है ‘नक्सलियों के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाले पुलिस विभाग की धारणा रही है कि आदिवासी माओवादियों से मिले हैं इसलिए ऐसा बर्ताव किया जाता है. यह खतरनाक है.’ टीओआई की रिपोर्ट के मुताबिक इस मामले में प्रशासन ने मजिस्ट्रियल जांच के आदेश दिए हैं.