ब्यूनस आयर्स
अर्जेंटीना क्षेत्रफल के लिहाज से दुनिया का आठवां बड़ा देश है। प्रथम विश्व युद्ध से पहले इस दक्षिण अमेरिकी देश की गिनती दुनिया के टॉप 10 अमीर देशों में होती थी। लेकिन आज इस देश में महंगाई चरम पर है। दुनिया में सबसे ज्यादा महंगाई इसी देश में है। अप्रैल में अर्जेंटीना में महंगाई की सालाना दर 289 फीसदी पहुंच गई। दुनिया में कोई दूसरा देश महंगाई इस मामले में उसके आसपास भी नहीं है। तुर्की 75.45 फीसदी के साथ दूसरे और वेनेजुएला 64.9 फीसदी से साथ तीसरे नंबर पर है। अर्जेंटीना में महंगाई का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि यह भारत के मुकाबले करीब 60 गुना है। भारत में अप्रैल में खुदरा महंगाई की दर 4.83 फीसदी रही थी। सवाल यह है कि कभी दुनिया के अमीर देशों में शुमार अर्जेंटीना की यह दुर्गति कैसे हुई?
प्रथम विश्व युद्ध से पहले अर्जेंटीना की गिनती दुनिया के टॉप अमीर देशों में होती थी। इस देश की अमीरी का अंदाजा इसी बात से ही लगाया जा सकता है कि As rich as an Argentine जैसे मुहावरे चलन में थे। 19वीं शताब्दी के अंत में और 20वीं सदी की शुरुआत में पूरे यूरोप से लोग अर्जेंटीना आए। यह देश धनधान्य से भरपूर था। लेकिन 1946 से देश में लोकलुभावन नीतियों और खर्च का ऐसा दौर शुरू हुआ कि उसकी इकॉनमी गर्त में चली गई। इसकी शुरुआत राष्ट्रपति जुआन पेरोन ने की जो 1946 से 1955 तक सत्ता में रहे। 1990 के दशक में राष्ट्रपति कार्लोस मेनम ने फ्री-मार्केट रिफॉर्म्स की कुछ कोशिशें की लेकिन वह नाकाम रहे। साल 2001 के अंत में चीजें हाथ से निकल गई जब देश को भयंकर आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा और उसने 102 अरब डॉलर के कर्ज के भुगतान में डिफॉल्ट किया।
40 फीसदी आबादी गरीब
अर्जेंटीना की सरकार ने अपनी करेंसी पीसो की कीमत डॉलर के बराबर रखने के लिए सख्त नीतियां बनाई। पिछले दो दशक से भी अधिक समय से देश में वामपंथी सरकारें रही जिन्होंने देश की आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के बजाय लोकलुभावन नीतियों को आगे बढ़ाया और सरकारी खर्च पर लगाम लगाने में नाकाम रहीं। छह महीने पहले जेवियर मिलेई बड़े-बड़े वादों के साथ सत्ता में आए लेकिन जनता की मुश्किलें कम होने के बजाय बढ़ती जा रही हैं। पीसो की कीमत सालभर में चार गुना से ज्यादा गिर चुकी है। जानकारों का कहना है कि अगर इसे सरकारी नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त कर दिया जाए तो यह अब भी काफी नीचे जा सकती है। हालत यह है कि देश के अमीरों को भी दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। देश के पास कैश रिजर्व नहीं है, सरकार पर भारी कर्ज है जबकि 40 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे रह रही है।