टीम इंडिया ने मोटेरा में खेले गए तीसरे टेस्ट में 10 विकेट से जीत दर्ज की. लेकिन यह मुकाबला सिर्फ 140.2 ओवर में ही खत्म हो गया.
अहमदाबाद के नए बने नरेंद्र मोदी स्टेडियम में हुए पिंक बॉल टेस्ट ने इस लिहाज से सनसनी पैदा कर दी कि मुकाबला सिर्फ दो दिन के भीतर ही खत्म हो गया. पूरे मैच में 140.2 ओवर का खेल ही हो पाया. आमतौर पर डे-नाइट टेस्ट वक्त से पहले ही खत्म हुए हैं. लेकिन यह मुकाबला सबसे कम समय तक चला. भारत की जीत का मार्जिन बड़ा रहा. जीत के लिए मिले टारगेट को टीम इंडिया ने बिना विकेट खोए पूरा कर लिया. लेकिन मेरी नजर में इस टेस्ट को दोनों टीमों ने बैटिंग में जैसा प्रदर्शन किया है. उस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए. टेस्ट में इंग्लैंड के पहली पारी में 112 रन के जवाब में भारत भी 145 रन पर ऑल आउट हो गया. दूसरे दिन भारत के 7 विकेट एक ही सेशन में गिर गए. उस मोड़ पर मैच का पलड़ा बराबरी पर था. क्योंकि
टीम इंडिया ने सिर्फ 33 रन की बढ़त ही ली थी. लेकिन इंग्लैंड के बल्लेबाजों में आत्मविश्वास और मानसिक मजबूती की कमी थी. इसी वजह से टीम गेंदबाजों के पलटवार का फायदा नहीं उठा पाई और दूसरी पारी में भी 81 रन पर ढेर हो गई.
यह बात ठीक है कि टेस्ट में जो टीम ज्यादा वक्त तक अच्छा खेलती है. वो जीत जाती है. लेकिन खेल पर अगर पिच का प्रभाव जरूरत से ज्यादा हो और दोनों टीमों के लिए बल्लेबाजी लॉटरी जैसी हो जाए. तो ये टेस्ट क्रिकेट का मजा किरकिरा कर देती है. मेरी नजर में मोटेरा में ऐसा ही हुआ. दोनों दिन लगातार विकेट गिरते रहे. इससे फैंस को जरूर मजा आया और वो खेल से जुड़े रहे. हालांकि पिच के अप्रत्याशित मिजाज ने जरूर बल्लेबाजों को परेशानी में डाले रखा और ये टेस्ट की लोकप्रियता के लिए अच्छा नहीं है.
क्रिकेट ऐसा खेल है जिसमें मौसम, पिच, फ्लड लाइट्स, गेंद का रंग जैसे कई फैक्टर्स हैं. जो इस खेल को महान बनाते हैं और इस खेल में सफल होने के लिए खिलाड़ी को मानसिक रूप से मजूबत होने के साथ ही संयम भी बरतना होता है. अगर इसमें से कोई एक फैक्टर बहुत हावी हो जाए तो खेल का असली मजा खत्म हो जाता है. टेस्ट क्रिकेट को आकर्षक बनाने के लिए बल्ले और गेंद के बीच मुकाबला बराबरी का होना चाहिए. हमेशा एकतरफा मैच होंगे. लेकिन अगर पिच खेल से जुड़े एक कौशल (बल्लेबाजी या गेंदबाजी) को पूरी तरह से खेल से बाहर कर दे. तो यह खिलाड़ियों, प्रशंसकों और खेल के प्रति असंतोष पैदा करता है.
ये बहस बेमानी नहीं है कि ओवरसीज बल्लेबाजों को भारतीय उपमहाद्वीप में आने से पहले टर्निंग ट्रैक के हिसाब से खुद को तैयार करना चाहिए जैसा यहां के बल्लेबाज जब SENA (South Africa, England, New Zealand, Australia) देशों में खेलने के लिए जाते हैं तो उन्हें वहां सीमिंग और उछाल वाली पिचों का सामना करना पड़ता है. लेकिन दोनों ही सूरत में इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता है कि पिच की वजह से बल्ले और गेंद के बीच का मुकाबला एकतरफा हो जाए. अहमदाबाद टेस्ट में तो शुरुआत से ही पिच पेचीदा नजर आ रही थी. पहले दिन जब इंग्लैंड की टीम 112 रन पर ऑल आउट हुई तो ऐसा लगा कि उसने टॉस जीतकर पहले बल्लेबाजी करने का फायदा गंवा दिया. कुछ हद तक ये बात सही भी थी. जिस पर मैं आगे बात करूंगा. लेकिन मैच जैसे आगे बढ़ा. भारतीय बल्लेबाज भी बेबस ही नजर आए और इसने पिच के दोहरे चरित्र को सामने लाकर रख दिया.
भारतीय बल्लेबाज रोहित शर्मा और जैक क्राउली ( दोनों पहली पारी में) को छोड़ दें तो कोई भी बल्लेबाज इस पिच पर नहीं टिक सका. दोनों टीमों के तेज गेंदबाज भी मुसाफिर की तरह ही नजर आए. इस पिच पर स्पिनर्स इतने असरदार नजर आए कि इंग्लैंड के कप्तान जो रूट जैसे पार्ट टाइम फिरकी गेंदबाज ने भारत की पहली पारी में 8 रन देकर पांच विकेट झटक लिए. इससे पता चलता है कि पिच बल्लेबाजों के कितना खिलाफ थी. हालांकि, ऐसा कहते हुए मैं मोटेरा में भारत की जीत को कमतर नहीं आंक रहा हूं. इस पिच पर भी सफल होने के लिए फिरकी गेंदबाजों को सही लेंथ और रफ्तार से गेंद फेंकनी थी और इस काम में रविचंद्नन अश्विन और अक्षऱ पटेल इंग्लैंड के गेंदबाजों से ज्यादा बेहतर रहे.
मैं तो इंग्लैंड की हार को लेकर एक कदम और आगे जाना चाहूंगा. मुझे ये कहने से गुरेज नहीं है कि मोटेरा में हार और वर्ल्ड टेस्ट चैम्पियनशिप की रेस से बाहर होने के लिए इंग्लैंड की टीम खुद जिम्मेदार है. टीम ने न सिर्फ दूसरे और तीसरे टेस्ट की पिच को गलत ढंग से पढ़ा. बल्कि टीम सेलेक्शन भी गलत रहा. हालांकि पहले टेस्ट के बाद टीम का प्रदर्शन भी तय पैमाने से काफी नीचे रहा. चेपॉक में हुए सेकेंड टेस्ट में इंग्लैंड की टीम बल्लेबाजी औऱ गेंदबाजी दोनों में फ्लॉप रही.
दूसरे टेस्ट में डॉम बेस की जगह इंग्लैंड ने मोईन अली को प्लेइंग-11 में मौका दिया. उन्होंने मैच में आठ विकेट तो लिए लेकिन उसकी कीमत इतनी ज्यादा रही कि मैच के नतीजे पर इसका ज्यादा असर पड़ा. जैक लीच जरूर अपना असर छोड़ने में कामयाब रहे लेकिन अक्षर औऱ अश्विन की तरह खतरनाक नहीं दिखे.
इंग्लैंड की हार की वजह उनकी बल्लेबाजी ही रही. क्योंकि आज के दौर में जब टीम के पास तकनीक से जुड़े सारे साधन हैं. टीम के साथ वीडियो और डेटा एनालेटिक्स के विशेषज्ञ मौजूद हैं. ऐसे में टीम के बल्लेबाजों का खराब प्रदर्शन समझ से परे है. इंग्लैंड के काफी इंटरनेशनल प्लेयर जॉनी बेयरस्टो, बेन स्टोक्स, जोस बटलर, जोफ्रा आर्चर जैसे खिलाड़ी लगातार आईपीएल खेल रहे हैं. ये खिलाड़ी भारतीय कंडीशंस को ठीक से जानते भी हैं. ऐसे में इन्हें खुद के साथ ही दूसरे खिलाड़ियों को भी इस चुनौती के लिए तैयार करना था. जबकि पहले टेस्ट को छोड़ दें तो बाकी दोनों मुकाबलों में इंग्लैंड के बल्लेबाज डरे रहे और यही टीम की हार की वजह बनी.
दूसरी ओर टीम इंडिया ने पहले टेस्ट के बाद अच्छा कमबैक किया. टीम के लिए अश्विन और अक्षर ने सबसे अच्छा प्रदर्शन किया. वे 77 टेस्ट में 400 विकेट लेने में कामयाब रहे और टेस्ट करियर में पांचवा शतक भी लगाया. अक्षर तो इस सीरीज की खोज कहे जा सकते हैं. लगातार दो टेस्ट में पांच विकेट लेना दिखाता है कि वो कितनी तेजी से टेस्ट क्रिकेट में खुद को ढाल रहे हैं. पिच से भले ही मदद मिली हो. लेकिन जिस कंट्रोल के साथ उन्होंने गेंदबाजी की है. उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. पिछले कई सालों से अक्षर को व्हाइट बॉल क्रिकेटर के रूप में देखा जा रहा था. वे टेस्ट क्रिकेट में सेकेंड च्वाइस लेफ्ट आर्म स्पिनर भी नहीं थे. रविंद्र जडेजा और कुलदीप यादव उनसे आगे थे. लेकिन अक्षऱ की मैच जिताने की काबिलियत को अब सेलेक्टर्स नजरअंदाज नहीं कर पाएंगे.