वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को नृसिंह जयंती व्रत किया जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन भक्त प्रहलाद की प्रार्थना पर हिरण्यकश्यप का वध करने के लिए भगवान नृसिंह का प्राकट्य हुआ था। नृसिंह चतुर्दशी को भक्तगण संकल्पपूर्वक व्रत रखते हैं। इस दिन भगवान नृसिंह के साथ माता लक्ष्मी की पूजा अर्चना की जाती है और अंत में शंख, घंटे एवं घड़ियाल से नृसिंह भगवान की आरती की जाती है और रात्रि के समय जागरण किया जाता है। भगवान विष्णु के 10 अवतार में नृसिंह चौथा अवतार है। इस अवतार में भगवान विष्णु का आधा शरीर मनुष्य और आधा सिंह के समान था। आइए जानते हैं नृसिंह जयंती व्रत पूजा विधि और कथा…
कब है नृसिंह जयंती?
चतुर्दशी तिथि का आरंभ 21 मई को शाम 5 बजकर 40 मिनट से हो रही है और समापन 22 मई को 6 बजकर 48 मिनट तक रहेगा। दोनों ही दिन सूर्यास्त काल में चतुर्दशी की व्याप्ति या अव्याप्ति की स्थिति में यह जयंती है। भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार शाम के समय लिया था क्योंकि हिरण्यकश्यप को वरदान था कि वह ना तो दिन और ना ही रात में मर सकता था। इसलिए इस वर्ष 21 मई को नृसिंह जयंती मनाई जाएगी क्योंकि चतुर्दशी तिथि को पहले दिन ही संध्याकाल में चतुर्दशी तिथि व्याप्त रहेगी।
नृसिंह जयंती पूजा विध
नृसिंह जयंती व्रत के दिन एक चौकी पर लाल या पीला कपड़ा बिछाकर भगवान नृसिंह की तस्वीर या मूर्ति रखें। अगर नरसिंह अवतार की तस्वीर या मूर्ति नहीं है तो भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की तस्वीर भी रख सकते हैं। इसके बाद चारों तरफ गंगाजल से छिड़काव करें और पूजा में फल, केसर, पंचमेवा, नारियल, फूल, अक्षत, पीताम्बर आदि पूजा से संबंधित सामग्री रखें। इसके साथ काले तिल, पंचगव्य और हवन सामग्री चढ़ाएं। इसके बाद विधि विधान के साथ पूजा अर्चना करें और तुलसीदल के साथ भोग लगाएं। इस दिन भगवान कृष्ण को बांसुरी भी देनी चाहिए। मान्यता है कि नृसिंह जयंती के दिन रात्रि जागरण करने का विशेष फल प्राप्त होता है।
नृसिंह जयंती व्रत कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, जब हिरण्याक्ष का वध हुआ था तो उसका भाई राक्षसराज हिरण्यकश्यप बहुत दुख हुआ था। अपने भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिए हिरण्यकश्यप ने कठोर तप किया। राक्षसराज ने ब्रह्माजी व शिवजी को प्रसन्न कर उनसे मनुष्य, देवता, पक्षी, पशु आदि से ना मरने का वरदान प्राप्त कर लिया था। वरदान पाकर हिरण्यकश्यप ने भगवान की पूजा करने वालों को कठोर दंड देना शुरू कर दिया और उन सभी से अपनी पूजा करवाता था। वह अपनी प्रजा को तरह तरह की यातनाएं और कष्ट देने लगा और इस कारण प्रजा अत्यंत दुखी रहती थी। देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने हिरण्यकश्यप के वध का आश्वासन दिया।
इन्हीं दिनों हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रहलाद रखा गया। राक्षस कुल में जन्म लेने के बाद भी बचपन से ही प्रहलाद भगवान नारायण की भक्ति करने लगा। वह महल के बच्चों को भी धर्म का उपदेश देते थे। हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद का मन भगवान की भक्ति से हटाने के लिए कई असफल प्रयास किए, लेकिन वह सफल नहीं हो सका। एक दिन क्रोधित हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को दरबार में बुलाया और डांटते हुए कहा कि तुने किसी की आज्ञा से मेरे विरुद्ध काम किया। तब प्रह्लाद ने कहा कि भगवान नारायण हर जगह है और उन्होंने पूरे ब्रह्मांड की रचना की है। आप अपना यह भाव छोड़कर श्रीहरि के चरणों में मन लगाइए।
प्रह्लाद की बात सुनकर हिरण्यकश्यप ने कहा कि अगर तेरा भगवान हर जगह है तो इस खंभे में क्यों नहीं दिखता। यह कहकर हिरण्यकश्यप क्रोध से तमतमाया हुआ, स्वयं तलवार लेकर सिंहासन पर कूद पड़ा और जोर से खंभे पर घूंसा मारा। तभी खंभे के भीतर से नृसिंह भगवान प्रकट हुए, उनका आधा शरीर मनुष्य और आधा शरीर सिंह समान था। उन्होंने हिरण्यकश्यप को अपने जांघों पर लेते हुए चौखट पर उसके सीने को अपने नाखूनों से फाड़ दिया और अपने भक्त की रक्षा की।